Tuesday, March 17, 2009

सहनशील पुरुष समाज...


सालों से ये माना जाता है कि स्त्रियाँ पुरुषों से ज़्यादा सहनशील होती हैं। कहा जाता हैं कि ससुराल में होनेवाले अत्याचार, पति की गालियाँ और बच्चों की उपेक्षा। स्त्रियाँ इन सबको सहन कर जाती हैं और चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देती हैं। अपनी भावनाओं और इच्छाओं को दबाने में भी स्त्रियों को महारत हासिल होती हैं। लेकिन, कुछ और भी ऐसा है जिसमें स्त्रियाँ पुरुषों से ज़्यादा सहनशील है। वो है - नेचर्स कॉल को दबाए रखना। सड़क के किनारे ज़रा-सी भी जगह मिल जाए बस किसी न किसी पुरुष की असहनशीलता की दुर्गंध आपके दिमाग को हिलाने के लिए हवा में तैरती हुई मिल जाएगी। बस स्टॉप के कोने, किसी बड़े से सरकारी ऑफ़िस की बॉउन्ड्री वॉल या अन्डर कन्स्ट्रक्शन साइट। इनमें से किसी भी जगह बिना नाक पर हाथ रखें खड़ा नहीं हुआ जा सकता हैं। मैं रोज़ाना जनपथ लेन से गुज़रती हूँ। बेहद भीड़-भाड़वाली इस जगह पर कुछ पुरुष दीवार की ओर मुंह किए खड़े मिल जाएंगे। उन्हें देखकर आश्चर्य होता है। लगता है कि आखिर किसी मानसिकता के साथ वो ये काम करते हैं। या तो इन्हें कोई शारीरिक बीमारी है जो ये कुछ देर भी रोक नहीं पाते हैं या फिर ये इनका अपना तरीक़ा है ये बताने का कि ये पुरुष प्रधान समाज है। ये तो बात हुई केवल आम पुरुषों की जो इस तरह की हकरतें करते हैं। लेकिन, सरकार की सोच पर भी मुझे आश्चर्य होता है। पूरी दिल्ली में आज तक मुझे एक भी केवल महिलाओं के लिए बना सार्वजनिक मूत्रालय नहीं दिखा है। या तो दोनों के लिए बने शौचालय नज़र आते हैं। या फिर पुरुषों के लिए बने हुए मूत्रालय। मेरे ऑफिस से रूम तक के रास्ते में ही तीन पुरुष मूत्रालय है, लेकिन एक भी महिलाओं के लिए नहीं। मैं कई बार ये सोचती हूँ कि आखिर क्यों स्त्रियों को रास्ते के दौरान नेचर्स कॉल नहीं आता है। या फिर ऐसी कौन-सी ताक़त है जो स्त्रियाँ इसे रोक लेती है। कुछ सालों पहले की बात है मेरी एक मौसी को डॉक्टर ने किडनी में कैंसर बताया था। इसके होने के पीछे डॉक्टर की दलील थी कि वो बहुत देर देर तक बाथरूम नहीं जाती थी। इसलिए उन्हें ये हुआ। मेरी मौसी मुंबई में रहती है और वहां एक कंपनी में काम करती है। वो रोज़ाना 4 घंटे का सफ़र तय करती है। पिछले 20 सालों में इस दौरान हर बार उन्होंने अपने नेचर्स कॉल को रोका। जिसका रिज़ल्ट आज कैंसर के रूप में उनके सामने हैं। मेरी मामी देवास में रहती है और पास के ही एक गांव के स्कूल में हेड मास्टर है। उन्होंने केवल एक बार स्कूल के बाथरूम का उपयोग किया था उसके बाद उन्हें गंदगी के चलते यूरीन इन्फ़ेक्शन हो गया। इसके बाद से वो दिन भर स्कूल में रहते हुए भी बाथरूम नहीं जाती हैं। यहाँ ये बात मैंने इसलिए बताई कि अगर मौसी की जगह मौसाजी होते या मामी की जगह मामा तो उन्हें शायद ही ये बीमारियाँ होती। क्योंकि हर जगह पुरुषों के लिए मूत्रालय मौजूद है। अगर नहीं भी हो तो आखिर ये पुरुष प्रधान समाज है। यहाँ पुरुष का राज है। आखिर वो क्यों कुछ सहेगा........

4 comments:

सचिन श्रीवास्तव said...

एक मित्र हैं हाल ही में उनकी पत्नी ने सेल्सगर्ल की नौकरी छोड दी. दोनों के बीच खूब कहा सुनी हुई. आर्थिक तंगी का रोना रोया गया. जब कारण पूछा गया तो उनकी पत्नी ने धीरे से कहा- मुझे जल्दी जल्दी बाथरूम जाना पडता है. इसलिए ये नौकरी नहीं कर सकती.
एक और इसी से जुडा दृश्य गांवों में दिखता है. सडक किनारे दिशा मैदान करती औरतें भी इसी विन्यास का एक अंग हैं.
असल में इस निजाम में वही जी पाएगा जिसके लिए जीना एक घटना है.
मसले की ओर फिर ध्यान दिलाने के लिए शुक्रिया

रंजना said...

सही कहा,जबकि पुरुष कहीं भी आवश्यकता पड़ने पर अपने को हल्का कर लेता है,फिर भी सार्वजानिक स्थलों पर महिला संसाधनालय का नितांत अभाव हुआ करता है..

अनिल कान्त said...

maine bhi kayi baar socha hai ki sarkaar is jaroori cheez ...सार्वजानिक स्थलों पर महिला संसाधनालय....ke baare mein kyon jyada nahi sochti ....jabki ye ek manushya chaahe stri ho ya purush ke liye bahut aavashyak hai ...khaaskar mahilaon ke liye ...kyonki purush to jo karte hue paaye jate hain wo kisi se chhupa nahi hai

Aadarsh Rathore said...

दरअसल इसका एक कारण है। पहले महिलाओं को घर से बाहर जाने के मौके कम मिलते थे। लेकिन अब वाकई इस पर काम होना चाहिए।
न्यूटन की संज्ञा देता हूं आपको।