Wednesday, April 6, 2022

पापा का किचन...

 

हमारे आसपास का माहौल, लोगों का स्वभाव ये सब कितना ज्यादा मायने रखते हैं ये मुझे कुछ दिन पहले एकदम से महसूस हुआ। बीते दिनों हमारा एक दोस्त अपनी पत्नी और बेटे के साथ घर आया। दोस्त का बेटा अस्मि के साथ खेल रहा था, मैं दोस्त और उसकी पत्नी से बात कर रही थी और भुवन किचन में चाय छान रहा था। भुवन को किचन में देखते ही दोस्त का बेटा जोर से हंसा और बोला- "देखो पापा अंकल तो किचन में काम करते हैं..." मैं उसकी ये बात सुनकर चौंक गयी लेकिन, मैं कुछ बोलती इससे पहले ही अस्मि झट से बोली- "तो उसमें क्या हुआ... पापा तो काम करते ही हैं किचन में, घर में भी और बाहर भी।  मम्मा भी करती हैं, माँ भी करती है"। बात आयी गयी हो गयी। लेकिन, बात ऐसी है जो आयी गयी है नहीं। मेरे कई दोस्त है जो घर और बाहर बराबरी से एक दूसरे के साथ काम करते हैं। बिना किसी दबाव के, बिना किसी शर्म के। भुवन और मैं भी बराबरी से काम करते हैं। कौन सा काम किसका है ये बंटवारा जेंडर के या पति या पत्नी के पद के आधार पर नहीं हुआ है। मुझे भुवन का काम करना कभी कोई बड़ी बात लगी भी नहीं। लेकिन, कइयों को लगती है और जिन दोस्तों के पति उनके साथ काम करते हैं उन्हें भी लगती हैं। कई बार उनके गुणगान भी होते हैं। लोग तारीफों के पुल भी बांध देते हैं। लेकिन, मेरा रिएक्शन हमेशा से वहीं रहा जो उस दिन अस्मि का था। मतलब कि- "पापा तो काम करते ही हैं"। मैंने जब ध्यान से सोचा तो मुझे अहसास हुआ कि आखिर मैं ऐसा सोचूं क्यों भी ना।  क्योंकि मैंने तो पापा को मैंने हमेशा मम्मी का हाथ बंटाते हुए देखा है और ऐसा भी नहीं कि वो किसी के सामने ऐसा नहीं करते हैं। पापा खुलकर, खुले मन से हर काम को कर लेते हैं। तो उस दिन जब दोस्त के बेटे को पापा का किचन में काम करना अजीब लगा उस दिन मुझे ये अहसास हुआ कि ये कोई बड़ी बात है। आज भी बड़ी बात है और कल भी बड़ी बात थी। मैं क्योंकि हमेशा से ऐसे माहौल में रही जहां लिंग के आधार पर काम का बंटवारा नहीं होता तो मेरे लिए ये अजीब नहीं था। लेकिन, बात तो अजीब है। 

-दीप्ति दुबे 

Saturday, December 4, 2021

स्मृति शेषः मन्नू भंडारी


जब समग्र लेखन पर भारी पड़ा 
मन्नू भण्डारी का एक उपन्यास

सुप्रसिद्ध हिन्दी लेखिका मन्नू भण्डारी एक मेधावी और नारी चरित्र का प्रभावी लेखन  करने वाली अप्रतिम और उत्कृष्ठ लेखिका थीं। अपने दमदार लेखन के कैरियर में आपका जो एक उपन्यास जो  बेहद चर्चित रहा वो था,
"आपका बंटी"- विवाह विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को केंद्र में रखकर लिखा गया यह उपन्यास उनके समग्र लेखन पर इतना भारी पड़ा कि उनका जिक्र होने पर यही कहा जाता था कि- "मन्नू भण्डारी, अच्छा वहीं आपका बण्टी वाली?" मन्नू भण्डारी को अपने लेखन के लिए कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त हुए जिसमें दिल्ली साहित्य अकादमी का शिखर सम्मान, बिहार सरकार, भारतीय भाषा परिषद और कोलकाता साहित्य परिषद का पुरस्कार,राजस्थान संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान और उत्तर-प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिया जाने वाला सम्मान भी शामिल हैं।

व्यक्तित्व की सहजता से उपजी थी मन्नू भण्डारी के लेखन की बोधगम्यता

मन्नू भण्डारी के लेखन की बोधगम्यता उनके व्यक्तित्व की सहजता से ही उपजी थी। उनके लेखन और व्यवहार में कहीं कोई फर्क नहीं था। नब्बे वर्ष की उम्र में उनका लेखन भी लगभग छूट चुका था फिर भी वे हमेशा स्त्री लेखन की मज़बूत कड़ी बनी रहीं। उनके निधन से साहित्य जगत में जो शून्य आया है उसकी भरपाई असम्भव है। वे उस दौर में लेखन कर रही थीं, जब स्त्रियाँ कम लिख रही थीं उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती थी। उस समय भारतीय समाज संक्रमण काल से गुजर रहा था। मध्यवर्गीय परिवारों में विखंडन शुरू हो चुका था और स्त्रियाँ अपनी अस्मिता को लेकर मुखर हो रही थीं ।ऐसे दौर में एक सुधारवादी नज़रिया लेकर कथा जगत में आईं। उसी दौर में स्त्रियाँ घरों से बाहर निकलीं और कामकाज़ी बनीं। उनका जीवन बदला और सोच भी बदली। इस यथार्थ और बदलाव को उन्होंने देखा और समझा।

लेखन के संस्कार उन्हें अपने परिवार से मिले थे

मध्यप्रदेश में मंदसौर जिले के भानपुरा में 03 अप्रैल 1931 को जन्मीं मन्नू का बचपन का नाम महेंद्र कुमारी था। लेखन के लिए उन्होंने मन्नू नाम का चुनाव किया। उन्होंने एम ए तक शिक्षा पाई और वर्षों तक दिल्ली के मिराण्डा हाउस में अध्यापिका रहीं। "धर्मयुग" में धारावाहिक प्रकाशित उपन्यास- "आपका बंटी" से अपार लोकप्रियता प्राप्त करने वाली मन्नू भंडारी विक्रम विश्व विद्यालय, उज्जैन में प्रेमचंद सृजनपीठ की अध्यक्ष भी रहीं। लेखन का संस्कार उन्हें विरासत में मिला। उनके पिता सुख सम्पतराय भी जाने माने लेखक थे।

अपने व्यापक रचना संस्कार में नारी चरित्र को उकेरा था मन्नू भण्डारी ने

मन्नू भण्डारी के नौ कहानी संग्रह एक प्लेट सैलाब, मैं हार गई, तीन निगाहों की एक तस्वीर, यही सच है, त्रिशंकु, श्रेष्ठ कहानियाँ, आँखों देखा झूठ, नायक खलनायक और विदूषक, छः उपन्यास- आपका बंटी, महाभोज, स्वामी, एक इंच मुस्कान, कलवा और एक कहानी यह भी, चार पटकथाएँ - रजनीगंधा, निर्मला, स्वामी, दर्पण और एक नाटक - बिना दीवारों का घर प्रकाशित हुआ । नारी चरित्रों को सम्यक सोच और सूक्ष्म अध्ययन के साथ प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त मन्नू भण्डारी की एक कहानी- "अकेल " सोमा बुआ नाम के पात्र को केंद्र में रखकर लिखी गई है। सोमा अपने पास पड़ोस से घुलने-मिलने के प्रयासों के बावजूद अकेली पड़ जाती है। वह अकेली इसलिए है क्योंकि वह परित्यक्ता है, बूढ़ी हो चली है तथा उसका पुत्र भी उन्हे छोड़कर जा चुका है। अपने परिवेश के साथ घुलने मिलने के उसके प्रयास भी एकतरफा हैं। इसी प्रकार सुप्रसिद्ध लेखक और अपने पति राजेंद्र यादव के साथ लिखा गया उनका उपन्यास-"एक इंच मुस्कान" पढ़े लिखे आधुनिक लोगों की एक दुखांत प्रेमकथा है जिसका एक-एक अंक लेखक-द्वय ने क्रमानुसार लिखा है और बेहद रोचक है और एक पुरुष और एक महिला के सोच के अन्तर को रेखांकित करता है। नौकरशाही और राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार के बीच आम आदमी की पीड़ा को उजागर करने वाला उपन्यास-"महाभोज़" भी बेहद लोकप्रिय हुआ और इस उपन्यास पर आधारित नाटक भी खूब पसन्द किया गया। इसी प्रकार- "यही सच है" उपन्यास पर आधारित फिल्म रजनीगंधा भी लोकप्रिय हुई थी और उसको सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। 

मन्नू भण्डारी के पिता भी सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे

मन्नू भण्डारी के पिता सुख सम्पतराय जाने माने लेखक थे और उन्होंने "हिंदी के परिभाषिक कोष" जैसी महत्वपूर्ण रचना लिखी थी। वे एक आदर्शवादी व्यक्ति थे उन्होंने स्त्री शिक्षा पर बल दिया वह लड़कियों को रसोई में जाने से मना करते थे और लड़कियों की शिक्षा को  प्राथमिकता देते थे। मन्नू भण्डारी के व्यक्तित्व निर्माण में इनका प्रमुख  हाथ रहा। उन्होंने अपने पहले कहानी संग्रह- "मैं हार गई" अपने पिताजी को समर्पित करते हुए लिखा है उन्हें समर्पित जिन्होंने मेरी किसी भी इच्छा पर, कभी अंकुश नहीं लगाया। मन्नू जी की माँ अनूपकुंवरी उदार, स्नेहिल, सहनशील और धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी। मन्नू द्वारा पिताजी का विरोध करने पर वह कहती- “मुझे कोई शिकायत नहीं है बेटी, तुम क्यों परेशान होती हो, जाओ अपना काम करो”। मन्नू भण्डारी तो कहतींं थीं आज हम जो कुछ भी हैं हमारी माता के प्रोत्साहन का परिणाम है ।

संस्कार और परिवेश से कोई व्यक्ति बड़ी बनता है

मन्नू भण्डारी का मानना था कि कोई भी व्यक्ति जन्म से बड़ा नहीं होता। बड़ा बनने के लिए सबसे बड़ा योगदान संस्कारों का होता है उसके बाद परिवेश का। उन्हें लेखन संस्कार विरासत में प्राप्त हुआ। उनके पिता लेखक और समाज सुधारक थे। इसी कारण स्वतंत्रता पूर्व जब नारी शिक्षा अकल्पित बात लगती थी तब मन्नू तथा उसकी बहनों को उच्च शिक्षा प्राप्त करवाई गई। मन्नू ने अजमेर के सावित्री गर्ल्स हाई स्कूल में शिक्षा प्राप्त की अजमेर कॉलेज से इण्टरमीडिएट किया। कॉलेज की प्राध्यापिका शीला अग्रवाल ने लड़कियों को देशप्रेम और अंग्रेज सरकार के विरोध की प्रेरणा दी जिसके कारण मन्नू भण्डारी ने स्वतंत्रता आंदोलन में भी भाग लिया। स्वतंत्रता के बाद बहन सुशीला के पास कोलकाता से बी.ए.की डिग्री हासिल की। उन्होंने अपना कैरियर कोलकाता से आरम्भ किया ।सबसे पहले कोलकाता के बालीगंज शिक्षा सदन मे नौ साल तक पढ़ाने का कार्य किया। वर्ष 1961 में आप राणीं बिरला कॉलेज, कोलकाता में प्राध्यापिका और फिर दिल्ली के एक आभिजात्य महाविद्यालय मिराण्डा कॉलेज ‌‌‌‌में अध्यापिका रहीं।

व्यर्थ के भावोच्छवास से बचा रहा मन्नू भण्डारी का लेखन

सुप्रसिद्ध लेखक और मन्नू भण्डारी के पति राजेंद्र यादव उनके लेखन के बारे में कहते थे,कि व्यर्थ के भावोच्छवास में नारी के आंचल में दूध और आंखों में पानी दिखाकर मन्नू भंडारी ने पाठकों की कभी दया नहीं वसूली, वह यथार्थ के धरातल पर नारी का नारी की दृष्टि से अंकन करती हैं। मन्नू भण्डारी अक्सर कहा करती थीं कि लेखन ने मुझे अपनी निहायत निजी समस्याओं के प्रति वस्तुनिष्ठ होना और उनसे उबरना सिखाया। 


राजा दुबे   

Sunday, September 5, 2021

शिक्षक दिवस विशेष




शिक्षक की गौरवमयी भूमिका के पुनर्अविष्कार का अवसर देता है यह दिन

समाज में एक शिक्षक की भूमिका गौरवमयी और अप्रतिम होती है और इस भूमिका के पुनर्अविष्कार का अवसर देता है शिक्षक दिवस का यह राष्ट्रव्यापी आयोजन। देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन देश के दूसरे राष्ट्रपति, महान दार्शनिक और शिक्षाविद् डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस के रुप में इसे मनाया जाता है। शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन ने जो अमूल्य योगदान दिया वह निश्चय ही अविस्मरणीय रहेगा। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।यद्यपि वे एक जाने-माने विद्वान, शिक्षक, वक्ता, प्रशासक, राजनयिक, देशभक्त और शिक्षा शास्त्री थे, तथापि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी शिक्षा के क्षेत्र में सतत योगदान करते रहे। उनकी मान्यता थी कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। शिक्षा और शिक्षक के ऐसे भाष्यकार के जन्मदिवस को हम शिक्षक दिवस के रुप में मनाते हैं यह एक गौरव का विषय है। उनकी शिक्षा को लेकर सोच अत्यंत सुस्पष्ट थी। वे कहते थे शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति, वह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है।करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं। वे कहते थे कि जब तक शिक्षक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती।

शिक्षक दिवस पर देश शिक्षकों के अवदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हैं

देश में शिक्षक दिवस के आयोजन का लक्ष्य शिक्षकों के अमूल्य और अविस्मरणीय अवदान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करना और समाज में उनकी महत्ता प्रतिपादित करना है. इस दिन केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा-"शिक्षक सम्मान समारोह" का भव्य और गरिमामय आयोजन होता है। सरकारी आयोजन से इतर समाजसेवी संस्थाएं भी अपने स्तर पर शिक्षक सम्मान समारोह का आयोजन करती हैं. शिक्षा और शिक्षक पर केन्द्रित व्याख्यानमाला का आयोजन भी इस दिन होता है। गत वर्ष भी कोरोना संक्रमण के बीच
वेबीनार के माध्यम से शिक्षक दिवस का आयोजन हुआ। शिक्षक दिवस के सार्वजनिक समारोह के साथ ही सोश्यल मीडिया पर भी उपयोगकर्ता अपने शिक्षकों को बधाई देते हैं और उनका सम्मान करते हैं। इस दिन शिक्षकों को बधाई पत्र ( ग्रीटिंग्स) देने और कोई गरिमामय उपहार देने की भी परम्परा है। शिक्षक दिवस पर शिक्षा के क्षेत्र में आ रहे बदलाव पर भी व्यापक विचार विमर्श होता है। पिछले दो वर्ष से पूरे देश में शिक्षक दिवस पर भारत सरकार द्वारा घोषित- "राष्ट्रीय शिक्षा नीति" पर वेबीनार और विडियो
कांन्फ्रेसिंग के माध्यम से व्यापक चर्चा भी हो रही है. मीडिया शिक्षा से जुड़े मुद्दों के अलावा राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय सम्मान पाने वाले शिक्षकों से बातचीत का प्रसारण करेंगे। कुछ सरकारें शिक्षकों के लिये कुछ लाभदायी घोषणाएँ भी कर सकती हैं। इस साल कर्नाटक के बाद मध्यप्रदेश देश का दूसरा राज्य है जहाँ नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू हुई है अतः इस शिक्षक दिवस पर मुख्य रुप से शिक्षा और शिक्षकों पर बात होगी।

डॉ.राधाकृष्णन को अपने शिक्षक होने पर सर्वाधिक गर्व था

भारत के एक विलक्षण राजनेता, आदर्श शिक्षक और देश के राष्ट्रपति डॉ.सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्म दिवस को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस मनाने का महत्वपूर्ण निर्णय वर्ष 1962 में उनके राष्ट्रपति बनने के बाद लिया गया था। एक बार उनके कुछ विद्यार्थियों और मित्रों ने उनसे उनके जन्मदिन को समारोहपूर्वक मनाने की बात कही। इसके जवाब में उन्‍होंने कहा था कि- "मेरा जन्मदिन अलग से मनाने के बजाय अगर उस दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाए तो मुझे अत्यंत गर्व महसूस होगा क्योंकि मुझे सबसे ज्यादा गौरव  की अनुभूति अपने शिक्षक होने पर है। "उनकी इसी इच्छा को सम्मान देने के लिये ही देश प्रतिवर्ष सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पाँच सितम्बर को देश में शिक्षक दिवस के रुप में मनाता है। संयुक्त राष्ट्र की शैक्षिक गतिविधियों से जुड़ी इकाई- यूनेस्को" ने वर्ष 1994 से प्रतिवर्ष पाँच अक्टूबर को- "अंतर्राष्ट्रीय शिक्षक दिवस" मनाने का निर्णय लिया था। शिक्षकों के प्रति सहयोग को बढ़ावा देने और भविष्य की पीढ़ियों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए शिक्षकों के महत्व के प्रति जागरूकता लाने के उद्देश्य से इसकी शुरुआत की गई थी. मगर भारत में पाँच सितम्बर को ही राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षक दिवस मनाते हैं। विश्व के विभिन्न देश अलग-अलग तारीख़ों में शिक्षक दिवस को मानते हैं। कुछ देशों में इस दिन अवकाश रहता है तो कहीं-कहीं यह कामकाजी दिन ही रहता है.

दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक से राष्ट्रपति तक की उपलब्धियाँ जुड़ी है राधाकृष्णन के साथ

राधाकृष्णन का जन्म तमिलनाडु के तिरूतनी ग्राम में, जो तत्कालीन मद्रास से लगभग 64 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, 5 सितम्बर 1888 को हुआ था. राधाकृष्णन का बाल्यकाल तिरूतनी एवं तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर ही व्यतीत हुआ. उन्होंने प्रथम आठ वर्ष तिरूतनी में ही गुजारे. यद्यपि उनके पिता पुराने विचारों के थे और उनमें धार्मिक भावनाएँ भी थीं, इसके बावजूद उन्होंने राधाकृष्णन को क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में वर्ष 1896-1900 के मध्य विद्याध्ययन के लिये भेजा, फिर अगले 4 वर्ष (1900 से 1904) की उनकी शिक्षा वेल्लूर में हुई. इसके बाद उन्होंने मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास में शिक्षा प्राप्त की. वह बचपन से ही मेधावी थे. उन्होंने बचपन में ही स्वामी विवेकानन्द और अन्य महान विचारकों  के विचारों का अध्ययन किया. उन्होंने वर्ष 1902 में मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की और उन्हें छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई. इसके बाद उन्होंने वर्ष 1904 में कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की. उन्हें मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता की टिप्पणी भी उच्च प्राप्तांकों के कारण मिली. इसके अलावा क्रिश्चियन कॉलेज, मद्रास ने उन्हें छात्रवृत्ति भी दी. दर्शनशास्त्र में एमए करने के पश्चात् 1918 में वे मैसूर महाविद्यालय में दर्शनशास्त्र के सहायक प्राध्यापक नियुक्त हुए बाद में उसी कॉलेज में वे प्राध्यापक भी रहे. डॉ राधाकृष्णन ने अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से विश्व को भारतीय दर्शन शास्त्र से परिचित कराया. आज़ाद भारत की संविधान सभा के राधाकृष्णन एकमात्र गैर राजनैतिक सदस्य थे. बाद में आपको सोवियत संघ में विशिष्ट राजदूत बनाया गया. वर्ष 1952 में सोवियत संघ से आने के बाद डॉ राधाकृष्णन देश के पहले उपराष्ट्रपति बने और वर्ष 1962 में वे भारत के राष्ट्रपति चुने गए. उन दिनों राष्ट्रपति का वेतन दस हजार रुपए मासिक था लेकिन प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेन्द्र प्रसाद मात्र ढाई हजार रुपए ही लेते थे और शेष राशि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष में जमा करा देते थे. डॉ राधाकृष्णन ने डॉ राजेन्द्र प्रसाद की इस गौरवशाली परंपरा को जारी रखा. देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचकर भी वे सादगी भरा जीवन बिताते रहे.

विश्व में मानव मात्र की भलाई की बुनियाद शिक्षा पर ही  रखी जाती है

डॉ.राधाकृष्णन समूचे विश्व को एक विद्यालय मानते थे। उनका मानना था कि शिक्षा के द्वारा ही मानव मस्तिष्क का सदुपयोग किया जा सकता है और विश्व में मानव मात्र की भलाई की बुनियाद शिक्षा पर ही रखी जा सकती है, अत: विश्व को एक ही इकाई मानकर शिक्षा का प्रबन्धन करना चाहिए. ब्रिटेन के एडिनबरा विश्वविद्यालय में दिये अपने भाषण में डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था- "मानव को एक होना चाहिए, मानव इतिहास का संपूर्ण लक्ष्य मानव जाति की मुक्ति तभी सम्भव है जब देशों की नीतियों का आधार पूरे विश्व में शान्ति की स्थापना का प्रयत्न हो। "डॉ राधाकृष्णन अपनी बुद्धि से परिपूर्ण व्याख्याओं, आनन्ददायी अभिव्यक्तियों और हल्की गुदगुदाने वाली कहानियों से छात्रों को मन्त्रमुग्ध कर देते थे। उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारने की प्रेरणा वह अपने छात्रों को भी देते थे। शिक्षकों के बारे में डॉ राधाकृष्णन का मानना था कि समाज और देश की विभिन्न बुराइयों को शिक्षा के द्वारा ही सही तरीके से हल किया जा सकता है। शिक्षक  ही एक सभ्य और प्रगतिशील समाज की नींव रखता है। उनके समर्पित काम और छात्रों को प्रबुद्ध नागरिक बनाने के लिए उनके अथक प्रयास प्रशंसनीय हैंं. डॉ राधाकृष्णन की इच्छा थी कि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होना चाहिए और शिक्षकों, छात्रों और शिक्षा पद्धति के बीच एक मजबूत संबंध विकसित होना चाहिए। कुल मिलाकर वे पूरी शिक्षा प्रणाली में बदलाव चाहते थे, उनके अनुसार शिक्षकों को विद्यार्थियों का स्नेह और सम्मान प्राप्त करने के लिए आदेश नहीं देना चाहिए बल्कि उन्हें इसके योग्य बनना चाहिए।
इस शिक्षक दिवस पर डॉ.राधाकृष्णन की यह एक सीख भी यदि हम ले पाये कि - "शिक्षक उन्हीं लोगों को बनाया जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान हो तो भी यह एक बड़ी पहल होगी। "शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए , उसे अपने छात्रों का स्नेह और आदर भी अर्जित करना चाहिए। हर शिक्षक को यह याद रखना चाहिए कि उन्हें सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है." यदि शिक्षक यह ध्यान रखेंगे तो वे सच्चे अर्थों में राष्ट्र निर्माता शिक्षक की परिकल्पना को साकार कर सकेंगे।


 

Thursday, August 19, 2021

पंचायती राज का सपना: राजा दुबे



जनजातीय अँचल की यात्रा से गढ़ा था सशक्त पंचायत राज का सपना

वर्ष 1984 में इंदिरा गाँधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद जिस औचक तरीके से देश की सत्ता राजीव गाँधी के  हाथ आई थी तब वे राजनीतिक गुणा-भाग से ज्यादा वाकिफ नहीं थे और सच तो यह है कि वे सत्ता में  लगभग छः साल तक रहने के बाद भी न तो राजनैतिक गुणा-भाग और न ही सियासी जोड़-तोड़ से वाकिफ़ हो पाये मगर देश की भलाई के लिए वे क्या कर सकते हैं इसका इलहाम उन्हें था। प्रधानमंत्री के रुप में अपने पहले और एकमात्र कार्यकाल में उन्होंने दूरसंचार क्रांति और कम्प्यूटर क्रांति के माध्यम से देश को सूचना प्रौद्योगिकी की मुख्यधारा से जोड़ा, मतदान की उम्र सीमा इक्कीस वर्ष से घटाकर अट्ठारह साल कर चुनाव में युवाओं की सहभागिता बढ़ाई और हर जिले में राष्ट्रीय एकीकरण को बढ़ावा देने के लिए ग्रामीण क्षेत्र में एक आदर्श  सहशिक्षा आवासीय केन्द्र के रुप में नवोदय विद्यालय खोला । मगर इन सबसे अहम् निर्णय था देश मेंं सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था के सशक्तिकरण और ग्राम स्वराज का एक आदर्श प्रारुप बनाने का। उनकी हत्या के बाद उनके उत्तराधिकारी प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव ने पंचायत राज एवम् ग्राम स्वराज (संशोधन) अधिनियम के लिए संविधान में तिहत्तरवें और चौहत्तरवें संविधान संशोधन के माध्यम से राजीव गाँधी का यह सपना साकार किया। राजीव गाँधी ने बतौर प्रधानमंत्री अपनी सहधर्मिणी सोनिया गाँधी के साथ देश के जनजातीय अँचलों का व्यापक दौरा किया और इन अँचलों के गाँव- गाँव जाकर पंचायतों के हाल-अहवाल का जायजा लिया। सच तो यह है कि जनजातीय अँचल की इन्हीं यात्राओं में उन्होंने सशक्त पंचायती राज का सपना गढ़ा।

वर्ष 1985 की इसी यात्रा श्रृँखला मेंं जब राजीव गाँधी और सोनिया गाँधी मध्यप्रदेश के छत्तीसगढ़ अँचल और पश्चिमी मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले के आदिवासी गांवों में गये तो आदिवासियों से चर्चा कर और उस क्षेत्र के आदिवासी गाँव में आदिवासी परिवार के साथ ही रात्रि विश्राम कर और उनके साथ उन्हीं के घर में बना खाना खाकर उन्होंने उनकी समस्याओं और उनकी क्षमता को पहचाना। झाबुआ जिले के प्रवास में देवीगढ़, कट्ठीवाड़ा सहित कई गाँवों में गये। राजीव गाँधी ने यह  यात्रा जनजातीय अँचल के सुदूरतम गाँवों तक पहुंचने के लिये हेलीकॉप्टर से की थी और यात्रा की योजना बनाने वालों से कहा था कि हैलीपेड उस आदिवासी गाँव के पंचायत भवन के पास बनाएं जिससे वे पैदल पंचायत भवन पहुँचकर सरपंच और गाँव वालों से मिल सकें।

इस प्रवास मेंआलीराजपुर अनुविभाग के जिन पाँच गाँवों में राजीव-सोनिया को जाना था उनका क्रम तय था। पहले गाँव में तो उनका हेलीकॉप्टर तय स्थान पर उतरा मगर फिर दूसरे और तीसरे गाँव को छोड़कर चौथे गाँव कट्ठीवाड़ा में पहुँच गया। वहाँ हैलीपेड भी था पंचायत भवन भी था, पंचायत भवन में एक कुर्सी पर सरपंच भी बैठे थे। जिला प्रशासन के कुछ अधिकारी भी थे मगर चूँकि प्रधानमंत्री को अभी उस गांव नहीं आना था अतः जिला प्रशासन की भी दो नम्बर की टीम यानी डीएसपी, तहसीलदार और जिला सहकारी बैंक के प्रबंधक वहां मौजूद थे। हेलीपेड से उतरकर राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी और प्रदेश के मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा पंचायत भवन आये। सरपंच अपनी कुर्सी पर बैठे थे। राजीव और सोनिया जब थोड़ा झुककर पंचायत भवन में घुसे तो मौजूद अधिकारियों ने सरपंच को कहा दिल्ली से बड़े बाबा आये हैं, खड़े हो जा।सरपंच टस से मस नहीं हुआ। दूसरी बार अधिकारियों ने जब सरपंच को उठाना चाहा तो वे चिढ़कर बोले-"हूँ नीं उठूंगा, म्हने कलेक्टर सा'ब बोल्या है"।इस बार राजीव गाँधी ने टोका- "बैठे रहने दीजिए उन्हें इस कुर्सी पर, यह सरपंच की कुर्सी है और वे सरपंच हैं- "ही हेज राइट टू सिट ऑन दैट चेयर"। इसके बाद राजीव गाँधी ने सरपंच से देर तक बात की और वे इस बात से हैरान भी हुए कि केन्द्र सरकार की योजनाओं का पैसा जो पंचायतों को भेजा जाता है वो पूरी तरह से उन तक नहीं पहुंचता है। इसके बाद ही उन्होंने विभिन्न योजनाओं को पैसा सीधे पंचायतों को भेजने के प्रावधान की बात की। अपने कार्यकाल में पंचायती राज और ग्राम स्वराज का जो सपना राजीव गाँधी ने देखा था वो सपना वस्तुत: जनजातीय अँचल की इन्हीं यात्राओं में गढ़ा गया था। आज जो पंचायतों को हम इतना सशक्त देख रहें हैं वो राजीव गाँधी की ही परिकल्पना थी। इसी प्रवास में देवीगढ़ की आमसभा में उन्होंने कहा था कि गाँथीजी ने जो हर गाँव को गणतंत्र कहा था वह ग्राम स्वराज ही तो था और हमारे पंचायती राज के यही  निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधि देश में मजबूत पंचायत राज और ग्राम स्वराज का सपना सच करेंगे। 

राजा दुबे